समय कभी समाप्त नहीं होगा
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समाप्त नही होता समय
बस बीत जाता है
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समाप्त नही होता समय
बस बीत जाता है
सरक जाता है आगे
अपनी अंतहीन यात्रा पर
यायावर समय
पीछे छोड़कर
अपनी रंगीन केंचुली
हम वापस भरना चाहते है
बीता हुआ समय
उसी रंगीन केंचुली में
मगर निरंतर बढ़ता जाता है
समय का आयतन
बदलता जाता है
उसका स्वरूप
एक निश्चित अंतराल पर
अनवरत उग आते है
कमल के फूल
प्रगाढ़ कीचड़ में
दुर्गंध से भरे
गोबर के टीलों में
फूटने लगते हैं
सुकोमल मशरूम
कितना आश्चर्यजनक है
कहीं भी कुछ भी
सड़ने या गलने पर
कुछ आकर्षक रुप
आकार लेने लगते हैं
सीलन भरी दिवारें
लाईकेन से सज जाती है
निर्जन उपेक्षित
अंधकार से लिप्त कमरे
नितांत एकांत को जन्म देते हैं
अंकुर फूट ही जाता है
खंडहर की दिवारों से
उदासीन मलबों पर
वन लताओं का आलिंगन
खिलने लगता है
अति प्रलाप से जागते है
आँखो के ग्लेशियर
टूट जाते हैं
रूंधे गले के बँध
क्रमवार विस्फोटों से
उत्तेजित होने लगते हैं
कान के पर्दे
और नाड़ियों का रक्तचाप
ऐसे ही किसी धमाके मे
जन्मी होगी पृथ्वी
असंख्य तारे
और ब्रह्मांड का निर्माण भी
किसी हादसे से हुआ होगा
जले हुये खेत
पट रहे हैं जंगली फूलों की
मादक गंध से
बैठने लगीं हैं तितलियां
पीड़ा से थरथराते देहों पर
और मै निशाना साधे
वर्षों से खड़ा हूँ
आखेटक की तरह
केंचुली उतार रहे
समय पर
और मेरे तरकश में
पनप रहा है प्रेम
-परमानन्द रमन