Sunday, September 17, 2017

समय कभी समाप्त नहीं होगा

समय कभी समाप्त नहीं होगा
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समाप्त नही होता समय
बस बीत जाता है

सरक जाता है आगे
अपनी अंतहीन यात्रा पर
यायावर समय

पीछे छोड़कर
अपनी रंगीन केंचुली
हम वापस भरना चाहते है
बीता हुआ समय
उसी रंगीन केंचुली में

मगर निरंतर बढ़ता जाता है
समय का आयतन
बदलता जाता है
उसका स्वरूप

एक निश्चित अंतराल पर
अनवरत उग आते है
कमल के फूल
प्रगाढ़ कीचड़ में

दुर्गंध से भरे
गोबर के टीलों में
फूटने लगते हैं
सुकोमल मशरूम

कितना आश्चर्यजनक है
कहीं भी कुछ भी
सड़ने या गलने पर
कुछ आकर्षक रुप
आकार लेने लगते हैं

सीलन भरी दिवारें
लाईकेन से सज जाती है

निर्जन उपेक्षित
अंधकार से लिप्त कमरे
नितांत एकांत को जन्म देते हैं

अंकुर फूट ही जाता है
खंडहर की दिवारों से

उदासीन मलबों पर
वन लताओं का आलिंगन
खिलने लगता है

अति प्रलाप से जागते है
आँखो के ग्लेशियर
टूट जाते हैं
रूंधे गले के बँध

क्रमवार विस्फोटों से
उत्तेजित होने लगते हैं
कान के पर्दे
और नाड़ियों का रक्तचाप

ऐसे ही किसी धमाके मे
जन्मी होगी पृथ्वी
असंख्य तारे
और ब्रह्मांड का निर्माण भी
किसी हादसे से हुआ होगा

जले हुये खेत
पट रहे हैं जंगली फूलों की
मादक गंध से

बैठने लगीं हैं तितलियां
पीड़ा से थरथराते देहों पर

और मै निशाना साधे
वर्षों से खड़ा हूँ
आखेटक की तरह
केंचुली उतार रहे
समय पर

और मेरे तरकश में
पनप रहा है प्रेम
-परमानन्द रमन

बचाकर रखना पृथ्वी

बचाकर रखना पृथ्वी
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बचाकर रखना पृथ्वी
सुरक्षित
उस दिन के लिये
जब देवता तुम्हें धकेलकर
निकाल देंगे
अदनवाटिका से
कल्पतरु से फल
चुराने के आरोप में
छीन लिये जायेंगे
तुम्हारे सकल दैविक-अधिकार
तुम निकृष्ट मानव होकर
विवशता से काटोगे
अपना शेष जीवन
तब तक के लिये
बचाकर रखना
खेत भर जमीन
छत भर आसमान
प्यास भर नदी
छांव भर वृक्ष
बारिश भर बादल
पीठ भर पहाड़
ऊजाले भर दिन
नींद भर रात
और
घर भर पृथ्वी
और याद से
चेता देना
अपनी भावी संतानों को
कि कैसे
एक कुटिल देव ने
योजनाबद्ध तरीकें से
याचक बनकर
हथिया ली थी
तुमसे
तुम्हारी पृथ्वी
-परमानन्द रमन

Wednesday, January 9, 2013

काश! की दुनिया खत्म हो जाती 
न तुम बाकी, न हम बाकी 
न अजान, ना झीलमिल दिया-बाती 
ना पैमाना, ना फिर साकी 

कोई लिखता, ना कोई गाता यहाँ
गैर का घर कोई जलाता न यहाँ 
फिर सरे-रह न लुटती इज्ज़त 
गुल न होती गुल से चमन की जीनत 

उफ़! ये भी एक ख्वाब है.. जो बेजा है
होंठ खामोश दिल परेशां है

ये दुनिया न जाने, फिर क्या से क्या हो ..!
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या हो..?

-(दुनिया के महफूज़ होने के बाद और नए साल के पहले)

Thursday, May 27, 2010

wo mar gaya,
achha hua..
agar wo zinda rahta
to or bhi kai baatein likhta

betuki,
bebuniyadi.. baatein

marne ki wajah...!
apna hi likha padhkar,
jisme zikr tha,
jindgi k baare me,
...shayad.

-(a page from diary of suicidal)

Tuesday, May 25, 2010

rahat

yun hi rah chalte
ghane sayo ki ot tale
dhup se bachte bachate
kuch sukun
chun liya tha..
ab miloge
to sikayat nahi hogi...